लेखक और लेखन का समय
यहोशू की पुस्तक का लेखक स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं है, परंतु परंपरागत रूप से माना जाता है कि इसे यहोशू (नून का पुत्र) ने लिखा — वही व्यक्ति जिसे मूसा का उत्तराधिकारी बनाया गया था।
यह पुस्तक लगभग ई.पू. 1400–1370 के बीच लिखी गई मानी जाती है, जब इस्राएल प्रतिज्ञा की हुई भूमि (Canaan) में स्थिर हो चुका था।
पुस्तक का उद्देश्य
यहोशू की पुस्तक यह दिखाती है कि परमेश्वर अपने वादों को कभी असत्य नहीं ठहराता।
जिस भूमि का वादा परमेश्वर ने अब्राहम, इसहाक और याकूब से किया था, वही भूमि अब इस्राएल को विरासत में दी जाती है।
यह पुस्तक तीन मुख्य बातों को प्रकट करती है:
संरचना और विभाजन
पुस्तक को चार प्रमुख खंडों में बाँटा जा सकता है:
1 तैयारी और पार करना (अध्याय 1–5)
2 विजय और युद्ध (अध्याय 6–12)
3 भूमि का विभाजन (अध्याय 13–22)
4 यहोशू का विदाई संदेश (अध्याय 23–24)
मुख्य आध्यात्मिक शिक्षाएँ (Doctrinal Insights)
1. परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ स्थायी हैं
हर वादा — भूमि का, विजय का, विश्राम का — परमेश्वर ने पूरा किया। यह हमारे लिए संकेत है कि परमेश्वर के वचन में कोई असत्य नहीं।
2. विश्वास + आज्ञाकारिता = विजय
यरीहो की दीवारें तलवार से नहीं, विश्वास से गिरीं।
यह दर्शाता है कि हर आत्मिक युद्ध में आज्ञाकारिता ही जीत का हथियार है।
3. पवित्रता आवश्यक है
ऐ नगर की असफलता इस बात की शिक्षा देती है कि परमेश्वर अपने लोगों में पाप को बर्दाश्त नहीं करता।
हमारी जीत केवल तब तक है जब तक हम उसके नियमों में बने रहें।
4. परमेश्वर की उपस्थिति जीवन का आश्रय है
“यहोवा तेरे संग रहेगा जहाँ तू जाएगा।” (1:9)
यह प्रतिज्ञा हर मसीही के लिए आज भी उतनी ही सच्ची है जितनी यहोशू के लिए थी।
मसीही जीवन में अनुप्रयोग (Applications for Today)
मुख्य पद (Key Verses)
संक्षिप्त सार
यहोशू की पुस्तक हमें सिखाती है कि परमेश्वर अपने वादों को पूरा करता है, लेकिन उसके लोगों को भी विश्वास, आज्ञाकारिता और पवित्रता में चलना होता है।
यह केवल ऐतिहासिक विजय का वृत्तांत नहीं — बल्कि आध्यात्मिक विजय का खाका है।

