महाभारत जोकि एक हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ है. सभी जानते हैं इसमें दो पक्षों के बीच युद्ध का वर्णन मिलता है. ये दो पक्ष थे कौरव और पांडव जोकि आपस में भाई थे. इस युद्ध में भाई भाई आपस में लड़े और भीषण विध्वंस हुआ और ये सब हुआ श्री कृष्ण के मार्गदर्शन में. युद्ध मारकाट, भाइयों में द्वेष, सम्पति के लिए लड़ना, अशांति, निराशा ये सब वे भाव हैं जो इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान हमारे मन में आते हैं. तो इस पुस्तक को पढ़कर हमें क्या शिक्षा मिलती है ? क्या इसकी शिक्षाओं पर चलकर हमारा समाज और आने वाली पीढ़ी को अच्छे संस्कार मिलेंगे ? आइये जानते हैं. हम आपको बताएँगे महाभारत में लड़ाई, शत्रुओं और आपसी व्यव्हार के विषय में क्या सिखाती है.
“जब तक समय अपने अनुकूल न हो जाये तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पङे तो ढोये परंतु जब समय अपने अनुकूल हो जाय तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे जैसे घङे को पत्थर पर पटक कर फोङ डालते हैं। ” (महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-18)
साम, दाम, दण्ड, भेद, आदि सभी उपायों से शत्रु को मिटा दो। (महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-20)
शत्रु बहुत दीनतापूर्वक वचन बोले तो भी उसे जीवित नहीं छोङना चाहिए। (महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-19)
कायर को भय दिखाकर फोङ लो जो शूरवीर हो उससे हाथ जोङकर बस में कर लो। लोभी को धन देकर तथा बराबर और निर्बल को पराक्रम से बस में कर लो। (महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-21)
सौगन्ध खाकर , धन अथवा विष देकर अथवा धोखे से भी शत्रु को मार डालें। किसी भी प्रकार से क्षमा न करें।(महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-13)
शत्रु के आने पर उसका स्वागत करें। आसन और भोजन दें तथा कोई प्रिय वस्तु भेंट करें। ऐसे व्यवहार से जिसका अपने प्रति पूरा विश्वास हो गया हो उसे भी अपने लाभ के लिये मारने में संकोच न करें। सर्प की भांति तीखे दांतों से काटें जिससे फिर शत्रु फिर उठकर बैठ न सके। (महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-30)
अवसर देखकर हाथ जोङना, शपथ खाना, आश्वासन देना, पैरों पर मस्तक देकर प्रणाम करना और आशा बँधाना ये सब ऐश्वर्य प्राप्ति के इच्छुक राजा के कर्तव्य हैं। (महाभारत, आदि पर्व अध्याय-20 श्लोक-36)
जहाँ सत्य बोलने से द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) का हनन होता हो वहाँ असत्य सत्य से उत्तम है।(महाभारत, अध्याय-8 श्लोक-104)
अब जानिये बाइबिल क्या सिखाती है शत्रुओं के प्रति व्यव्हार और भाइयों के साथ व्यव्हार के विषय में.
बाइबिल में प्रभु यीशु मसीह ने शत्रुओं के साथ व्यवहार के विषय में सिखाया “परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सताने वालों के लिये प्रार्थना करो। जिस से तुम अपने स्वर्गीय पिता की सन्तान ठहरोगे क्योंकि वह भलों और बुरों दोनो पर अपना सूर्य उदय करता है, और धमिर्यों और अधमिर्यों दोनों पर मेंह बरसाता है।” मत्ती 5:44-45
भाइयों के साथ व्यव्हार के विषय में बाइबिल सिखाती है: तब पतरस ने पास आकर, उस से कहा, हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूं, क्या सात बार तक? यीशु ने उस से कहा, मैं तुझ से यह नहीं कहता, कि सात बार, वरन सात बार के सत्तर गुने तक। मत्ती 18:21-22
परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा; और जो कोई कहे “अरे मूर्ख” वह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा। इसलिये यदि तू अपनी भेंट वेदी पर लाए, और वहां तू स्मरण करे, कि मेरे भाई के मन में मेरी ओर से कुछ विरोध है, तो अपनी भेंट वहीं वेदी के साम्हने छोड़ दे। और जाकर पहिले अपने भाई से मेल मिलाप कर; तब आकर अपनी भेंट चढ़ा। मत्ती 5:22-24
तुलना आपके सामने है. दोनों में कौन सी शिक्षाएं आदर्श ईश्वरीय हैं ? किन शिक्षाओं पर चल कर एक अच्छे भविष्य और आदर्श समाज की कल्पना की जा सकती है. जीवन आपका है निर्णय भी आपका है? यीशु मसीह ने किसी धर्म की स्थापना नहीं की न ही यीशु मसीह को मानने और उनपर विश्वास करने के लिए किसी धर्म को अपनाने की ज़रूरत है. बस एक छोटी सी प्रार्थना करने के द्वारा आप स्वर्गीय आशीषों को पा सकते है. प्रिय प्रभु यीशु मैं आप पर विश्वास करता हूँ मैं आपको और जानना चाहता हूँ. मेरे जीवन में आइये मेरे दिल में आइये। मैं आपका स्वागत करता हूँ. बाइबिल पाने के लिए संपर्क करें।